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रंग का तो कोई धर्म नहीं होता : भगवा बिकनी विवाद पर दीपिका पादुकोण का डायलाॅग।


पठान फिल्म के ‘ बेशर्म रंग ‘ गाने से मचे भाजपाई विवाद के बीच विगत शुक्रवार की रात को दीपिका पादुकोण कतर के लिए रवाना हुई थीं। वह हाल-फिलहाल विदेश में हैं। इधर भारत में इस गाने को लेकर विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है। दरअसल दीपिका के भगवा कलर की बिकनी पहनने को लेकर भाजपा नेताओं से लेकर तमाम हिंदू संगठन गोलबंद होकर अपनी आपत्ति अपने-अपने तरीके से रख रहे हैं।
उनका कहना है कि इस गाने से उनकी भावनाएं आहत हुई हैं। दीपिका ने भगवा बिकनी पहनकर हिंदू धर्म का अपमान किया है। विरोध करने वाले एक तरफ जोर आजमाईश कर रहे है वहीं दीपिका के करोड़ों फैंस उनके सपोर्ट में दो-दो हाथ करने पर तुल गए हैं। उन्होंने दीपिका की फिल्म ‘ बाजीराव मस्तानी ‘ का एक डायलाॅग खोज निकाला है जोकि सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है।

दीपिका ने उक्त फिल्म में मस्तानी का किरदार निभाया है। फिल्म में एक सीन में उनसे यानी मस्तानी से कहा जाता है कि ‘ केसरिया रंग के कपड़े ले आती सौगात में,ये हरे रंग का विष लाने की क्या ज़रुरत थी ? ‘ इसपर दीपिका का डायलाॅग है ‘ यह सच है कि हर धर्म ने एक रंग को चुन लिया है लेकिन रंग का कोई धर्म नहीं होता। हां कभी-कभी इंसान का मन काला ज़रुर हो जाता है जो उसे रंग में भी धर्म दिखाई देता है। ‘ दीपिका आगे कहती हैं ‘ दुर्गा की मूर्ति को सजाते वक्त हरे रंग का चूड़ा,हरे रंग की चोली पहनाते हैं। दरगाह में बड़े-बड़े पीर-फकीरों की मजारों पर केसरिया रंग की चादर चढ़ाते हैं तब तो रंग का ख्याल नहीं आता। ‘


बाॅलीवुड की दो बड़ी हस्तियों में अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखे। उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए दोनों में से किसी ने भी हालिया बेशर्म रंग गाने से उपजे विवादों का सीधे-सीधे तौर पर जिक्र नहीं किया लेकिन अपने-अपने ताकतवर तरीके से मौजूदा दौर की उन कमियों को अवश्य इंगित कर गए ,जो देश में फिल्मी रचनात्मकता की राह में एक बड़ी बाधा के शक्ल में महसूस की जा रही है। शाहरुख खान की इनकमिंग फिल्म ‘पठान ‘ के गाने को लेकर उठा विवाद तो इन समाचारों का महज़ एक पहलू है, जिसमें गाने को भगवे का अपमान बताया गया है। कथित फ्रिंज तत्वों की बात तो छोड़ें, मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा तक ने गाने को आपत्तिजनक ठहराया और बोले कि दीपिका कुछ साल पहले जेएनयू जाकर टुकड़े-टुकड़े गैंग का समर्थन करके अपनी मानसिकता का परिचय दिया था। यूं कहें कि भाजपाई भगवा और नफरती राजनीति का खुलासा ही कर दिया है जो विपक्ष को करना चाहिऐ था। देशवासी समझ सकते हैं कि किसी फिल्म का या उसमें दिखाए गए किसी शाॅट का मुल्याकंन करने के लिए भाजपाई आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय और उनके लाखों फाॅलोवर्स भी किस तरह की कसौटियां आजमा रहे हैं और मौजूदा विवाद में भी इस फिल्म को प्रदर्शित करने वाले थियेटर को जलाने तक का आह्वान किया जा रहा है और ऐसे आसामाजिक तत्वों के खिलाफ एफ आई आर तक दर्ज नहीं की जा रही है। वज़ह डबल इंजन सरकार का अपरोक्ष समर्थन है यानी भाजपाई कुछ भी करें तो लोकतांत्रिक शिष्टाचार और विपक्ष करें तो बलात्कार।
दरअसल देश में अपराध की छोटी-छोटी घटनाओं के सहारे पूरी फिल्म इंडस्ट्री को बदनाम करने का ट्रेंड भी दो-एक सालों में काफी मज़बूत हुआ है। क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री का अस्तित्व काफी हद तक समाज के बहुत बड़े हिस्से की फैन फालोइंग पर भी निर्भर करता है, इसलिए फिल्म इंडस्ट्री और उससे जुड़े लोगों की छवि को बदनाम करने हेतु साजिशन हमला कर के उसके राजस्व माॅडल को नेस्तनाबूत करने की नापाक कोशिशें देश में जारी हैं। जिसे हल्के में लेना फिल्म इंडस्ट्री के लिए आत्मघाती सिद्ध होने वाला है। इन खतरों का एक और पहलू यह है कि इंडस्ट्री में वैचारिक विभाजन हालांकि विचार रचनात्मकता को धार प्रदान करते रहे है,इसलिए वैचारिक आग्रह प्रथम द्रष्टया में नकारात्मक नहीं माने जा सकते हैं लेकिन देश के मौजूदा सूरतेहाल में नज़र आ रहे विभाजन की खासियत यह है कि इसमें रचनात्मकता को हासिए पर रख दिया गया है। वरना गोवा फिल्म फेस्टिवल में भेजी गई फिल्म को जूरी का अध्यक्ष द्वारा सार्वजनिक रुप से वल्गर और प्रोपेगंडा फिल्म बताता है और पूरी जूरी उसके बयान के पीछे खड़ी होती और हमारी फिल्म इंडस्ट्री शर्मसार होने के बजाय विरोध और समर्थन में बंटी एक-दूसरे पर हमला करती अवश्य दिखाई देती। जाहिर है कि सिनेमा के अपने साॅफ्ट कार्नर / पावर को अगर अक्षुण रखना है तो देश के मौजूदा सूरतेहाल को बदलना होगा।
कुलदीप मिश्र
राज्य ब्यूरो प्रमुख
उत्तर प्रदेश
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